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कविता

कवि

भारती गोरे


कवि लिखता है कविता
क्रांति की
शांति की
सद्भाव और भाईचारे की

कवि के उन शब्दों के कायल हैं हम
कवि की उस वेदना से घायल हैं हम
हम...
हम छोटे लोग
हम सामान्य लोग
हम बौने-अदने-से लोग

कवि के साहसी शब्दों के दीवाने लोग
एक दिन देखा
भड़के हुए दंगों का,
घर की
छोटी-सी खिड़की पे टँगे
परदे की ओट से
नजारा कर रहा है कवि
उसी दंगे में जीते जी जलते
बच्चे की
जलन
छुपकर
कागज पर उतार रहा है कवि

दंगे में जख्मी
हम जैसे मामूली
लोगों से मिलने
नाक पर
रूमाल रखे
अस्पताल में घूम रहा है कवि
हमारे बहते आँसू और जख्मीपन में
किसी लंबी कविता का प्लाट
ढूँढ़ रहा है कवि
बच बचाकर, बड़ा दुबककर
किसी जाति या धर्म
को
नाराज किए बिना
अपने 'ईमानदार ' शब्दों में
शांति और भाईचारे की गुहार लगा रहा है कवि
शहर के नेता से मिलकर
मदद के लिए फूट फूटकर रो रहा कवि

अपनी संवेदनशीलता और सामाजिक प्रतिबद्धता
के लिए
हर दूसरे दिन
अखबार के पन्नों पर छा रहा है कवि


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